7607529597598172 हिंदी पल्लवी: 2015

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

नव वर्ष मंगलमय हो..



नवीन  वर्ष  सभी  पुरातन 
कामनाओं को  सहर्ष  सँवारे।


नवीन  वर्ष नव कर्मों का 
भागीदार बन उसे निहारे।


नवीन  वर्ष सभी  पुराने 
रिश्तों को  सहज  सम्हाले।


नवीन  वर्ष  नयी मित्रता 
की   राह  सहर्ष बुहारे।


हो नया जोश, नयी  उमंग ,
नयी  उम्मीद पर  वही  होश। 


हो नया  कर्म ,  नयी चाह, 
नयी  बात  पर  वही  राह। 

नवीन कामना,क्षमता के  संगम का,
प्रत्यक्ष  साक्षी  हो नया   साल।  

नवीन  वर्ष  बने सभी सुखद, 
स्मृतियों  का प्रत्यक्ष   गवाह। 

नववर्ष २०१६  आपके लिए मंगलमय हो
पल्लवी गोयल 


रविवार, 13 दिसंबर 2015

पहचान का मोल



अक्सर आपकी पहचान 
आपके कार्यों से नहीं
' रहनुमाईन्दों'  से होती है 

लोगों की जुबान में 
इनकी जुबान बसी होती है

 ' नज़रों '  को देखने के लिए
 इनके नज़रिए  की जरूरत होती है  

और आपकी पहचान 
इनकी सहूलियतों के लिए होती है 

जो इन सहूलियतों का दाम चुकाया आपने 
आप की 'पहचान' आपकी अपनी हो जाएगी 

वर्ना यूँ ही एड़ियाँ  घिसते - घिसते 
आपकी पहचान अपनी से पराई
 होती  ही चली जाएगी 
चित्र साभार गूगल(संवर्धित ) 

शनिवार, 7 नवंबर 2015

चिराग तले अँधेरा


धूम धूम जलती 
रोशनी के तले 
प्रकाशित थे 
कुछ बुझते चेहरे

जगमगाती उजली
 रोशनी  के बीच
बुझते बुझते से 
दो दीयों  के जोड़े

खुशियाँ  बिखराते,
 हाथ नचाते  ,
झूम कर गाते 
समूहों के बीच थे
 कुछ खोजते चेहरे 

विज्ञापित साड़ियों ,
महकती खुशियों , 
विदेशी टाइयों 
के बीच थी 
कुछ लुगड़ियां 
मुसी धोतियाँ 
और निक्करें 

छोटे सवार थे घोड़ी पर 
उनपर सवार सेहरा था 
छोटा कहार नंगे पाँव 
उस पर सवार बक्सा था 

सेहरा और चेहरा क्या 
घोड़ी के पाँव तले उजियारा था 
बक्से के ऊपर उजाला 
तले भविष्य अँधेरा , धुंधला था

कुछ सवाल पूछता सा 
लगता था ज़माने से 
न शिकायत थी चेहरे 
पर, न बल माथे पर

उम्र है दोनों की एक 
पर क्या गुनाह मेरा था  
                             पल्लवी गोयल 



  

विद्यालय


भौरों की गुंजार ही ,
बगिया का संगीत है 
रास्ते पर बिखरा मकरंद
यही मेरी धन संपत्ति  है   

रविवार, 1 नवंबर 2015

विचार





विचारों  की भी अजब कहानी होती है
विचारों  की दुनिया कुछ पहचानी
कुछ अनजानी सी होती है

कभी पहुंचते परी लोक तो
कभी पहुंचते प्रिय आँचल में
कभी चन्द्र की ऊँचाई पर
कभी पाताल  की गहराई तक

चंद्रयान यात्री से पहले
विचार वहाँ  पहुंचा था
विचार ही है  वह गोताखोर
जो आत्मसागर में डुबकी लगाता

विचारों  ने ही निराकार 
को साकार बनाया 
इसी  छाते ने सद्गुण  के पास
और दुर्गुण  से दूर रहना सिखाया 

विचार ही हैं जिन्होंने 
रोगी को यमराज तक 
डॉक्टर को आँत तक 
कवि को चाँद तक 

नर को शक्ति तक
सैनिक  को मैदान तक 
जेहादी को आत्मदाह तक  
पहुंचने  का रास्ता दिखाया 

विचार मंथन ही
दुर्गुणों की छाछ  दूर फेंक
इन्सान को इन्सान   बनाता   
विचार  ही दिन के उजाले 
रात के अँधेरे का अंतर बताता  

इसकी ऊर्जा क्या न
पहुंची छात्र तक
जिसकी तेजी ने पहुंचाया 
रॉकेट यान को आकाश तक

ये ही तो थे  
जिसने समय समय पर  
तेरा साथ दिया 
वे यही है 
जिन्होंने तुझे पथभ्रष्ट  किया  

तू अपने आप को क्यों 
दोष देता है 
ये गुरु हस्त तले 
और संगत में पलता  है 
                                      पल्लवी गोयल 
   











शनिवार, 24 अक्टूबर 2015

माँ


माता  तो होती है देवी 
बच्चों के  लिए सबकुछ
 छोड़ देने वाली
बच्चों  को सबकुछ 
दे देने वाली 
उस देवी का दर्द 
पढ़ा  किसने ?
जब  सामने की थाली
सरकाई लाल को सामने
तो क्या उसका पेट
नहीं था ख़ाली ?
                      पल्लवी गोयल 


  

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

हौसले की उड़ान


हौसले की  उड़ान  तू  छोटी  मत करना, 
यदि दुनिया कहे, 'वह ' रास्ता है  मुश्किल, 
फैलाना  छोटे  पंखों को , पूरी  ताकत से, 
उड़ना उस ओर, जहाँ  बाहें फैलाए, 
तैयार खड़ी है  मंजिल।

राह  भरी  होगी, ऊँचे  पत्थरों से  तो  क्या? 
वहीं  नज़र  आएगी, एक  छोटी सी  गली। 
बरसों  बरस  से  पड़ी  सूनी,  बेज़ार सी, 
जिसे  रचा है  उसने  सिर्फ तेरे लिए।

सैकड़ों  तूफ़ानों  से  आकाश  भरा  हो  तो  क्या? 
वहीं  एक पेड़ पर छोटा सा  कोटर  भी  होगा ज़रूर, 
जिसके  जन्म  से ही वहाँ  कोई नहीं  झांका,  
रचा है  विधाता ने सिर्फ  तेरे  हौसले  के लिए।

विश्वास  टूटे  जो  तेरा कभी ,अपने   पंखों से,
तो  बताना  उन्हें, तू  अंश है  उस  परमात्मा  का 
जो  पूरी  सृष्टि  का  निर्माणक, पालनहार है, 
रचा है उसने  पूरी  कायनात  को तेरी सहायता के लिए। 
                                                पल्लवी गोयल

शनिवार, 3 अक्टूबर 2015

साकार क्षण





स्कूल  बस  में  बैठे  नौनिहाल,  

उमर  कोई  आठ से  दस साल। 

उन  नजरों का  पीछा करते, 
जब  मेरी  नज़ऱें  पहुँची वहाँ... 

जहाँ  था  नीला  आसमां, 
नवप्रभात  की  फूटती  किरणें, 
किरणों से  आरेखित  बादलों के झुंड, 

सभी  मिलकर  अठखेलियाँ  

करते नज़र आते थे। 
बालकों  का  कौतूहल  जगाते  थे। 

वह बस आगे  बढ़ती  जाती  थी, 
उनकी नज़रें  ऊपर वहीं  जमी जाती  थी।

कौतूहल तो  मेरी  आँखों में  भी  था। 
उन  बालकों  की  आँखों  से  फूटती 
नवप्रभात की  किरणें  देखने  का, 
उनके  दिलों में उन  बादलों के  बुलबुले 
मुस्कान के  आरेखण में देखने  का, 
उनकी  इंगित  अंगुलियां, 
चमकते  चेहरे, 
खिलती मुस्कराहटें, 
दूर  आसमान  में  आकार  बना  रहे थे। 
और  मैं  इन  आकारों  को  देखकर, 
वह  क्षण  साकार कर रही थी। 
                                          पल्लवी गोयल 

सोमवार, 31 अगस्त 2015

आदर


आर्यावर्त  की  आर्य  संस्कृति
विश्व में  पाती  सर्वोच्च  स्थान
ऋषि -  मुनि , रिश्ते  - नातों को
सदैव  देती  यथोचित  सम्मान
इतिहास के  स्वर्णिम अक्षरों को
उलट - पलट  कर जब  हम  झांकें
हुमायूं  को  राखी  पर  झुकते
धाय  माँ को  सम्मान देते  पाते
पिता  के एक  वचन  की  खातिर
पुत्र  व्यर्थ  करता  चौदह वर्ष
यहीं  शिवाजी  मातृ  इच्छा पर
भटकते  दिखते  वनों  वनों   पर
राजा  प्रजा के  आदरवश
प्रिय  पत्नी  त्याग  का  भार  उठाता
वहीं  पत्नी का अस्तित्व
फटी  भूमि  में  सहज  समाता
भक्ति  भी बिन आदर के
हृदय में  पाती कहाँ स्थान
राम कृष्ण  हो या मात पिता
जन-जन  का  हृदय  है  इसका  धाम 

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

कर्म पथ का राही


कर्म  पथ  का राही हूँ मैं
डगर डगर  हूँ  नापता
मंदिर, मस्जिद,  चर्च  गुरूद्वारा
न, कर्म  स्थल  को  हूँ जानता
कांटे  बिछे  हों  राह  में  तो
हँस  के  चल  पड़ता  हूँ मैं
फूलों की  राह  चुनकर
कब  होता है  कार्य  सुफल
एक  राह  मंदिर की  है
दूजी कर्म  स्थान  की
चुुनूँगा  मैं  कौन  सी
इसमें  नहीं ,  जरा  संदेह
 कर्म  सम्पन्न  होते  ही
ईश्वर  मिल  जाते  वहीं
अलग  से  क्यों  राह  चुनना
जब  लक्ष्य है  एक  ही।
पल्लवी  गोयल

शनिवार, 6 जून 2015

श्रमजल

मेरी  महत्वाकांक्षा का  जन्म हुआ था 
वहाँ, उस  चोटी पर। 
आँख बंद करते  ही  पहुँचती  थी 
जहाँ, उसके सिरे पर। 
धरती  थी  बहुत  नीचे, 
आसमां  था  बहुत  पास। 
जगी  हुई थी,  सैकड़ों  प्यास, 
प्यास बुझाने के  थे  साधन  अनेक, 
जुटा  कर  हिम्मत , बढ़ाना  था  हाथ। 
उठाना  था  एक  ऐसा  गिलास, 
जिसमें  हो  पसीने की  मीठी सुवास। 
आकांक्षा  का घोल  घुला  हो  शर्करा  सा, 
श्रमजल में,  स्वेदकण में। 

रविवार, 24 मई 2015

ऐ ज़िंदगी मुझे तुमसे प्यार


ज़िंदगी , ऐ  ज़िंदगी 

मुझे तुमसे प्यार, 
मुझे  तुमसे प्यार। 
तुम  एक  रास्ता  हो, 
जो  चलता है  अनवरत, लगातार। 


कभी जंगल, कभी  बगीचा, 

कभी  चौरस्ता, कभी  मिलता है  हाट। 
हर  एक  रास्ते   से  है, 
ऐ  ज़िंदगी  मुझको  प्यार। 


सुख  भी है,  दु:ख  भी है, 

यहां  गम  अनेक, खुशियाँ  हज़ार। 
तेरे  हर  भाव से, मुझको  प्यार। 
ऐ  ज़िंदगी  मुझे तुमसे प्यार। 


चलना  भी है, रुकना  भी है, 

मुड़ना  भी है,  झुकना  भी है। 
तेरे  हर  एक  कदम  पर  मेरा  ऐतबार। 
ऐ  ज़िंदगी , मुझे  तुमसे प्यार। 


यहां  दोस्त  भी,  दुश्मन  यहां, 

अजनबी  यहीं, यहीं  जांनिसार, 
इस  राह  के  हर  राही  से  प्यार, 
ऐ  ज़िंदगी, मुझे  तुमसे प्यार। 


चाहे  मंज़िल  हो  या  रास्ता, 

या  मील का पत्थर  कोई, 
चलता  हर  कदम  लगे  बेमिसाल, 
ऐ  ज़िंदगी  मुझे तुमसे प्यार। 


पहाड़ के  ऊँचे  दरख्त  से  प्यार, 

खाड़ी  की  उड़ती  चिड़िया  से प्यार। 
ऐ  ज़िंदगी  मुझे तुमसे प्यार, 
ऐ  ज़िंदगी  मुझे तुझसे प्यार। 
                                    - पल्लवी गोयल 

बुधवार, 20 मई 2015

जंगल का राजा



अभी - अभी  मेरी  हुई , जंगल में  उससे  भेंट, 

बड़ी  सी  पूंछ, पैने  पंजे  लिए  रहा था  लेट। 

लेटे  ही  उसने  पूछा, अरे  हुई  क्या  बात ? 
आज  बड़े  दिन  बाद हुई , तुमसे  मुलाकात । 

आओ  दो-दो   हाथ  हो  जाए , शतरंज की  बाज़ी, 
ज़रा  आवाज़  लगा  देना, कुछ  खाने को दे  जाए, सिंहनी  आजी।

मयूर  ज़रा  आकर  रांभा-सांभा  दिखला जाए, 
ज़िंदगी  भरपूर  मजे  की,  चलो  ज़रा  जीया  जाए।

शतरंज  बिछी, बाज़ी  लगी, फेंका  पासे  पर  पासा, 
अगला  पासा  उल्टा  पड़  गया,  पलट गया  सब  पासा। 

मैं था  नीचे,  वह  था  ऊपर, गुर्र - गुर्र - गुर्र  गुर्राता, 
बड़े  नुकीले,  तीखे,  चोखे , दाँत मुझे  दिखलाता। 

आँख  मींचकर, आँख  जो खोली, 

पलंग था  ऊपर,  मैं  था  नीचे, तकिया  मेरे  ऊपर, 
साँस  आ गई,  दम  आ  गया,  सपना  था  वह  केवल। 
                    



श्री राम वंदन


कौशल्या  नंदन  को  मेरा  वंदन, 
शत-शत  उन्हें प्रणाम। 
असुर, निशाचर  दुष्ट दलन  कर, 
ऋषि -  मुनियों को  दिया  विश्राम। 
कैकेयी  संग  दशरथ  की 
गोद में  अपूर्व  शोभायमान। 
सिंहासन  तज  फांकी  वन - रज
पितृ  वचन  को  दिया  सम्मान। 

भ्राता  को  सिंहासन  सौंपा, 
मातृप्रेम  का  दिया  प्रमाण। 
वानर,  रिछ , भालू  संग  रहकर, 
प्रकृति  प्रेम  का  दिया ज्ञान। 
संग  लंका,  लंकाधिपति  विनष्ट  कर, 
नष्ट  किया , विनाशी  का  अभिमान। 
त्याग दिया  प्रिय  भार्या  को भी ,
 राजकुल,  राजमर्यादा  के  नाम। 
आदर्शवादी, रघुकुलशिरोमणि, प्रजापालक, 
अयोध्यापति  श्रीराम  है  इनका नाम। 
ऐसे  श्री राम  को  मेरा  वंदन, 
शत-शत उन्हें प्रणाम। 

सोमवार, 11 मई 2015

अपनी नज़र


प्रशंसा  है व्यक्ति  की  सबसे बड़ी  कमज़ोरी, 
इसपर  विजय  पाना है  बहुत  ज़रूरी। 
नज़रें  खोजतीं हैं  एक  ऐसी  नज़र, 
जो  नज़रों में  ऊँचा  उठा  सके। 
पर  ये  खोजतीं  नज़रें, 
नज़र  नहीं  आतीं, 
नज़रों से  ज़रा सा  नीचे, 
आत्मा  के  सामने  नज़रें  झुकाए। 
हम  क्यों नहीं  आत्मा को  अपनी  नज़र  बनाते , 
खूबियों  और  कमियों  का  पलड़ा  उनसे  तुलवाते। 

रविवार, 10 मई 2015

बापू

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भारत  में जन्म  लिया 
विदेशों  में खत्म  की  पढ़ाई।
डिग्री तक  लेकर  पहुँचे  भारत में, 
अंग्रेजों की  लीला  रास  न  आई। 
विदेशी  उतार, देशी  पहन कर  
स्वदेशी  की  गुहार  लगवाई। 
डांडी  मार्च  की फेरी  लेकर, 
नमक  पहुंचाया  जन  तक  भाई। 
लंबी  लाठी  लिए  हाथ में, 
स्वतंत्रता  की  हुँकार  उठाई। 
गोल  चश्मा  टिका  नाक  पर, 
देश की  हर  समस्या  सुलझाई। 

बुधवार, 6 मई 2015

ईश्वर



कंकड,  पत्थर, धरती, बादल,

या  हो  नीला  आकाश ।
मुझमें, तुझमें, हवा  और  जल  में,
मिलता है  हरदम  आभास
पशु, पक्षी, कीट पतंगें,
सूर्य, चंद्र  में  भी  है  वास।
धमधम, गुनगुन, झरझर, टपटप,
सभी  हैं  मेरी  आवाज़।
चाहे  कहीं आओ , जाओ,
रहे  हमेशा  मेरा  साथ।
बूझ  सको  तो  बूझ  लो  मुझको,
तुम्हें  किस  नाम से   मेरा अहसास। 

गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

पहाड़ और गिलहरी


काले  पहाड़  और झबरीली  गिलहरी में
बहस  हुई एक  बार।
श्रेष्ठ  कौन है  तुच्छ  कौन,
गिलहरी  या  पहाड़।
पहाड़  बड़ा  सा  काला - काला,
गिलहरी  छुद्र  लाचार।
पूंछ  झबरीली , सुंदर , सुकोमल,
तीन  लहरें  काली  चमकदार।
गरज पहाड़  बोला  उस  छुद्र  से,
तू क्या क्या  कर  सकती कार्य।
मैं  बुलाता  बारिश  की  बूंदें,
खग  मृग  करते  मुझमें  वास।
मुझसे बनते मकान  अति सुन्दर,
मैं  हूँ  वह  अनन्त  अपार।
विहँस  बहुत  धीरे से बोली,
छुद्र  उठाती  विनय  का  भार।
भैया  पहाड़!  मैं  चढ़ती  इस  पेड़ पर,
तू  चढ़  दिखला  दे  एक  बार।


सोमवार, 27 अप्रैल 2015

प्रथम उड़ान


आशाओं के  पंख  लगा  कर
जब  प्रथम  उड़ान  सजाते।

आसमान  के  सातों  रंग,
चुरा  आंखों में  समाते।

चंदा  की  शीतलता  मानो,
माथे पर  थम  जातीं।

सूरज की  प्रथम  किरण,
मुखमंडल  पर  फूटी  आतीं।

कभी - कभी  घनेरे  बादल,
किरणों  को  ढक  लेते।

पुनः हठीली  चंचल  किरणें,
चेहरे  को  जगमग  करतीं।

गंतव्य  पाते ही  ये  सगर्व,
यूँ  गर्दन  उचकाते।

मानो  जीत  लिया  जग  सारा
फूले  नहीं समाते


पहाड़ और धरती

हरी  हरी  घास , पहाड़ी  को  यूं  ढककर  रहती।
मानो  प्यारी  धरती   चुनरी  के  नीचे  छिपकर बैठी।
प्रियतम  पहाड़  दूर  गर्वीले  खड़े  हुए,
बादल  के  कोहरे  की  पगड़ी से  माथा  ढके हुए,
कहते , तू ज़रा  न  चिंता  कर  ओ  प्यारी!
डट के  खड़ा  हुआ  हूँ ,  राह में  अड़ा  हुआ  हूँ।
कंधे पर  सवारी  कर मेरे  जो  आएगा,
नितांत तेरा  अपना  ही  तुझे  पाएगा।
यदि  अजनबी  कोई  चढ़ा  जो इस  सीने पर,
तुझपर  बुरी  नज़र  डाले , अपने  मन में।
दुःसाध्य, दुर्बोध, दुर्गम्य  बन  उसे  रोकूँगा।
तेरी  रक्षा  में  सदा  तत्पर  रहूँगा।

लोमड़ी और अंगूर

जंगल में  थी  प्यारी  बेल,
सुंदर - सुंदर  न्यारी  बेल।
कुछ  हरे, कुछ  पके हुए  से,
अनेक  गुच्छे  रहे थे  खेल।
यकायक  एक  लोमड़ी,
घूम-फिर  कर  आई।
उन्हें  देखकर  अपने  पास,
मन  ही मन  ललचाई।
उन्हें  पाने  को  अपने  हाथ,
एक  लम्बी  कूद  लगाई।
अंगूर  थे  पहुंच  के  ऊपर,
पहुंच  वहां  न  पाई।
किया  प्रयास  अनेक बार,
लगातार,  बारंबार।
हर  प्रयास में  होती  हार,
देख  कहा  मन  ही  मन-
 "अँगूर  खट्टे  हैं।"

इंसान


जीवन  है  बहुत  छोटा, करने हैं  बहुत  काम।
नाम?  नाम  को  रहने  दो  अनाम।

परिचय है  बहुत   छोटा, नाम है  अनाम,
उदासी ? इसमें उदासी का क्या काम।

दिल  है  बहुत  छोटा उदासी  का धाम,
प्यार ?  हां प्यार  से  इसमें  डालो  जान।

समाज  है  बहुत छोटा, देना  प्यार  का  पैगाम,
दुनिया ?  दुनिया है  ज़वाब  प्यारे  इंसान।

इंसान  तू  बहुत  छोटा भीड़  है  बेलगाम,
मित्रता ,  मित्रता  को  तू  दे  सम्मान।

मित्र.!  तू है  बहुत  छोटा ! कहते हैं  कुछ बेलगाम
हिम्मत !  हिम्मत  से  ही  बनेगा  काम।

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

फूल का एक दिन

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छोटी सी  एक  बगिया में,
एक  सुंदर  फूल  खिला  था।
धीमी  तेज़  हवा  के  झोंके  में
अलमस्त  झूला  झूल  रहा था।
सूरज की  पहली  किरणों से
जब  अंगड़ाई  ले  वह  जगा
छोटे  बड़े  हर  पल को,
वह  मज़ा ले- लेकर  जिया।
जब  बारिश की  चंचल  बूंदें
तन  को  उसके छू-  छूकर  गईं।
चौंक  - चौंक कर  देख  उधर,
कंपकंपाया, इठलाया था।
सारा दिन  बीत  गया था,
करते सारी  अठखेलियां।
इंतजार  था  अब  उसको,
अभी आती  होंगी  टोलियाँ।
सोनू, गोलू , रीना, सीमा  की ,
लगेंगी  हर्षोल्लास  की  बोलियां।
उन्हें  देखकर  वह  चिल्लाया
आओ, झूमो, नाचो, गाओ,
खेलो, कूदो, मुझे  दोस्त  बना...
आह। अभी  बात  न होने  पाई  पूरी
अस्तित्व  छोड़  चुका था  जड़।
जो  हाथ में  था, उस  नन्हे  दोस्त के।