मेरी महत्वाकांक्षा का जन्म हुआ था
वहाँ, उस चोटी पर।
आँख बंद करते ही पहुँचती थी
जहाँ, उसके सिरे पर।
धरती थी बहुत नीचे,
आसमां था बहुत पास।
जगी हुई थी, सैकड़ों प्यास,
प्यास बुझाने के थे साधन अनेक,
जुटा कर हिम्मत , बढ़ाना था हाथ।
उठाना था एक ऐसा गिलास,
जिसमें हो पसीने की मीठी सुवास।
आकांक्षा का घोल घुला हो शर्करा सा,
श्रमजल में, स्वेदकण में।
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