7607529597598172 हिंदी पल्लवी: कविता
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सोमवार, 14 सितंबर 2020

सखी हिंदी

 

हिंदी तुमसे प्यार क्यों इतना ,

सहज निभाना तुम्हें  क्यो इतना।


जब भी प्रश्न किया खुद से

उत्तर तुरंत पाया तुमसे।


सपने की हर उड़ान में  

 सच्ची सखी तू हर इक में।


अंतर्मन जो करे पुकार 

तू दौड़ी आती हर बार।


बाबा की बतकही में तू ही

माता की  झिड़की में तू ही


कटु या भोले अपशब्दों की 

मइया  तू ही  है इन की ।


मित्र चुहल का भार उठाती

मीत के खत का गाना गाती।


राखी का हर प्रण तुमसे 

सहचरी कंगना में ,तू ही हँसे ।


सखी ,  मीत, भार्या, अनुजा

मात ,तात  न  कोई तेरे बिना।


अब समझी  प्यार क्यों इतना 

सहज निभाना तुम्हें  क्यो इतना।


हिंदी दिवस के शुभ अवसर पर  हृदय से शुभकामनाएँ ।

सोमवार, 18 मई 2020

कुछ नहीं ...बस..



ये कलम भी न बस
अंगद पाँव हो गई है।

न फटी बिवाई की 
गहराई में जाकर 
झाँकने को तैयार है।

न रेल की पटरी पर 
बिछी रोटियों को 
चुनने के आतुर है।

न मदिरालय की 
लंबी  पंक्तियाँ को
गिनने को बेकरार है।

न तरबतर  बेटे पर 
लदी माँ के आँसू 
लोकने का प्यार है।

न घेरे में  पादुका रखे
साथ बैठे की सोचती 
कि बुद्धि की मार है।

बस सारे दिन सुस्त सी
पड़ती है , पढ़ती है,
सुनती है ,कहती है।


मुझे  चलाना तब जब
इनमें से  तुम्हें एक भी
बदलने से  सरोकार  है।

पल्लवी गोयल 
चित्र गूगल से साभार

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

जीवन अपने सम..


जीवन के इस कठिन सफर में,
चलते जाना मुश्किल जग में।
राह में कई बवंडर होंगे ,
कई शांत से झोंके भी।
कई राह के रोड़े होंगे ,
कई मील के पत्थर भी।
कई संविधान होंगे हम पर,
कई नियम हल्के-फुल्के से।
सोच हमारी अपनी है,
 क्या ले क्या ठुकरा दे हम।
हर एक बहती सरिता में,
 न कोई समरस धारा है।
क्या बोएँ, उगाएँ ,काटे खाएँ
 यह अधिकार हमारा है।
आओ इस जटिल गुत्थी को ,
खुद से खुद सुलझा ले हम।
जीवन को अपने सम ही
 जी कर हम दिखला दे बस।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

कृषक और सैनिक




1
कृषक महान मैं इस धरती का,
 मुझको हैं कुछ कर्ज चुकाने ।

प्रपात,सरिता,सरोवर में बहता, 
जल ले उसके चरण धुलाने ।

वायु प्रफुल्लित श्वसनिकाओं में
भरकर, हल-बैल से खेत सजाने।

जिस मिट्टी से बीज बना मैं,
उस पर हैं  कुछ बीज लगाने ।

जिस अन्न-जल ने सींचा मुझको ,
इस पर  है कुछ फसल उगानी।

2
बालक बन जन्म लिया
  अब सैनिक बन बैठा हूँ ।

 तेरी रक्षा के खातिर सीमा
पर, जलता ,ऐंठा बैठा हूँ ।

 शर  वक्ष  छलनी करे तुम्हारा
 धो बैठेगा वह  हाथ तभी ।

एक गोली आई इधर हमारे
तुरंत होंगे सर्वनाश तभी।

 तेरा नीर बहता मेरी रगों में
टपकेगा  वह नीर सा ही।

अगर किसी ने तीक्ष्ण नयन कर,
बढ़ाया कलुषित हाथ कभी ।

चाहे कृषक हो या वीर सिपाही
हूँ  मैं  भारतीय,बस संतान तेरी।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 14 दिसंबर 2019

कहे का कहा


जब कहा हुआ
कहा जाएगा
और फिर
कहा जाएगा
और तब तक
के लिए छोड़
दिया जाएगा
कि फिर
कहा जाए।

सुनने  वाला
कोई नहीं
सब कहने वाले
कहे का मंज़र
बवंडर बनकर
लहराएगा
आसमान की ओर
उड़ता निकल
जाएगा।

फिर से कहने
वाला  वही क्रिया 
दोहराएगा
जो कहने वाला
था उसने  कहा...
सुना नहीं
जो सुनने वाला था
वह भी कह ही
रहा था।

कहने वाले के
कहे का कहा
उनके लिए
कहा ही रह
जाएगा।

@पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

एक और एक ग्यारह


वैसे तो
एक और एक
मिल कर
दो बनता है ।
पर दो
की कोई
कहाँ सुनता है
आवाज बड़ी हो
तो दूर तक
जाती है ...
वरना छोटी तो
बस मक्खी
भिनभिनाती है ।

बेहतर है
 एक से एक
को मिलाओ
जोड़ा ग्यारह का
बनाओ ।
संख्या दो जुड़ेगी
 केवल एक मिलेगी
पर ताकत
 उसमें
दस और एक
की होगी ।

मर्जी तुम्हारी है
फायदा नुकसान
तुम्हारा है
किसे छोड़ो
किसे अपनाओ
फैसला भी
तुम्हारा है
 पर
एक को एक से
 गले लगाओ ।
एक को एक से
दूर
कदापि न भगाओ।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

प्रजातंत्र के रक्षक हो तुम

प्रजातंत्र है जिम्मेदारी 
जन जन इसका है अधिकारी 
अधिकार जो तुमको है पाना
कुछ कर्म भी करते जाना 
समुद्र की गहरी हलचल में
हंस बनो इक मोती चुनो
चुनना तुम्हारा कर्म -धर्म है
तुम प्रजातंत्र के रक्षक हो।
पल्लवी गोयल 

सोमवार, 12 अगस्त 2019

हे हिंद वासियों! कश्मीर वासियों!


हे हिंद वासियों !कश्मीरी बंधुओं!
 तुम भारत का सिरमौर हो
सत्तर वर्षों की कड़ी तपस्या
 के तुम जीवित धैर्य  हो।

 सीमा पर होने के
तुमने असंख्य वार सहे हैं
अदृश्य रेखा के इस पार सही
हमने भी सब दुख देखे हैं।

अब जो मिटी है वह अदृश्य अभी
उसको दिल से भी हटा देना
हो बिछड़े हुए तुम बरसों के
तुम भी बाहें फैला देना

 बोए हुए इस पराएपन ने
बहुत से त्रास रचे हैं
न पराए तुम हो, ना पराए हम
हाथ मिलाकर है चलना

 जो तलवार उठेगी तुमपर
ढाल होगा यह गात भी
 भ्राता, बंधु अरे सहोदर
 दुख पर मरहम हाथ भी।

हाथ से हाथ मिला कर चलना
लिखना है इतिहास अभी।
जंग हुई तो साथ रहेंगे
अमन हुआ तो सुख  भोगेंगे

ईद ,दिवाली ,स्वतंत्र, गणतंत्र
त्योहार साथ मनाएंगे
राष्ट्र मान तिरंगे तले
राष्ट्रगान सब गाएंगे

 संविधान है एक हमारा
 अधिकार हमारे समान है
भारत की हर अंतिम सीमा
पर हम सबका अधिकार है!!!

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

रविवार, 11 अगस्त 2019

हमराही


ज़िंदगी  हो ,साथी हों
साथ  जीने की
बेताबी हो
 चाहे रास्ता हो
ना मंज़िल
चलने का जज़्बा
रास्ता  दिखाए
उस रास्ते  को ही
 मंजिल समझ
हर पल को
जी लीजिए
रास्ते के इस
सफ़र में
हमराही की सुगंध
का लुत्फ़ लीजिए ।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

मंगलवार, 25 जून 2019

मैं बीज




कल जो मैं सोया

बंद कमरा देख बहुत रोया ।

आंखें ना खुलती थी

 गर्मी भी कुछ भिगोती थी ।

हवा की थी आस

 लगती थी बहुत प्यास ।

ना आवाज़ ना शोर

थी शांति चहुँ ओर ।

हाथ कहीं बंधे से थे

पैर भी खुलते न थे ।

थी बहुत निराशा

मिली ना कोई आशा।

 एक कतरा अमृत का

कुछ जीवन सा दे गया

आंखें तो खुली नहीं

पर खुश्क लबों को

  भिगो गया।

 लंबे समय की

खुश्की का  साथ

प्रतिदिन रहती बस

उस क्षण  की याद

 उसी बंदीगृह में  सुनी

 एक धीमी सी आवाज़

कुछ तो था उसमें  जो जगा

मुझमें नये जीवन का अहसास

फिर एक अविरल धारा बही

मैं झारोझार नहाया

हाथ कुछ खुलने लगे थे

पैर ज़मीं में धंसने लगे थे

एक स्पर्श से मैं  चौंक  गया

किसी  ने मेरे तन को छुआ

मैं मदमस्त  लहराने  लगा

मेरा मन गीत गाने लगा

गुनगुनाहट ने दी  शक्ति नयी

जोर लगाया तभी  आँखें खुली

चौंधियाई आँखें न

 सह पाईं यह वार

सामने  था अनोखा

  सुंदर सपनीला  संसार।

काश कि उस अँधेरे में

मैं यह समझ पाता

हर दुख के बाद

 सुख अवश्य आता।

सुख का प्रकाश

सबको है लुभाता।

पर सच यह है -

सुख- दुख का परचम

सिक्कों के दो

पहलू  सा लहराता।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार

गुरुवार, 30 मई 2019

महँगाई






दादी जी की  याद जो आई
वो चमकदार  आँखें  लहराई

बोल जुबां पर फिरते थे पर
सपने आँखों में  तिरते थे
भविष्य नहीं  ,वे यादें  थीं ,
जो बात बात पर निकलती थी ।

कभी  जलेबी  एक पैसे की
दोना  भर आ जाती थी ।
कभी सोलह आने में सोलह सेर
देशी घी की खुशबू घर गमकाती थी।

सोना चांदी का एक तोला
बस दस रुपए तुल जाता था ।
शानदार हवेली तीन मंजिली
बस तीस हजार में मिलती थी ।

एक पैसे का जीभ जरऊँआ
 पाचक खाते सब सुनती थी।
 अपनी भी कुछ बुरी नहीं थी
टॉफी पैसे में इक मिलती थी।

एक रूपये का रिक्शा तीन
 चौराहे पार कराता था ।
 ग्यारह  नंबर की बस पर जाओ
वह भी गुल्लक में जाता था।

 सरकारी स्कूल में जाकर
फीस माफ सी हो जाती थी।
 ग्यारह चवन्नियों के बदले
टीचर पूरे माह  पढ़ाती थी।

 रैपिडेक्स को पढ़- पढ़ कर
अंग्रेजी वॉकिंग टॉकिंग होती थी।
इंग्लिश मीडियम स्कूलों में बस
पुस्तक इंग्लिश की होती थी ।

बेटी जब पढ़ने को आई
इंग्लिश विद्या ही रास आई ।
कुछ रुपयों से ज्यादा रुपए
खर्च कर एडमिशन करा दिया ।

भांति-भांति पुस्तकों के संग
 कलर ,फेवीकोल भी आ गया ।
बस्ता ब्रांड का चाहिए था
 बोतल ,टिफिन और बॉक्स भी।

 रिक्शे का अब समय नहीं था
बस का हॉर्न बजता था ।
नये पुराने जमाने के बीच में
स्ट्रेंजर्स का खतरा बढ़ता था ।

कभी देखती फीस की पर्ची
कभी विद्यालय की इमारत नयी।
जो बतलाते थे आज की
महंगाई का ग्राफ सही ।

लक्ष्मी सरस्वती ने की थी
अब एक साठ-गांठ नई
एक बिना दूजी को पाना
थी बीते काल की बात हुई।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 25 मई 2019

मैं हूँ बड़ा रुपैया भैया


मैं हूँ बड़ा रुपैया भैया,
सबसे बड़ा रुपैया।
दौड़ के पीछे भागो मेरे,
हाथ कभी ना आऊँ तेरे।
लालच ,झूठ का मेरा संसार,
मृगतृष्णा का मैं जंजाल।
मैं आगे ,सब दुनिया पीछे ।
मैं नहीं ,सब रीते -रीते ।
महिमा से साथी बन जाते,
साथी भी दुश्मनी निभाते।
अजब गजब मेरा संसार,
चलो फिर मिलाते हाथ।
बढ़ाया हाथ ,तेरा मिला नहीं,
दो कदम बढ़ा, पर जुड़ा नहीं।
फिर कदम बढ़ा दो, हाथ सहित,
हाथ बढ़ा और पकड़ सही।
फिर कर एक कोशिश नयी,
कोशिश से हर बात बनी।
पास तेरे बस यही खड़ा हूं,
तेरे कर्मों से जुड़ा हुआ हूं।
कपट ,तृष्णा, छल ,धोखेबाजी,
कब्र खुदेगी यहीं तुम्हारी।
दया धर्म का जो तू व्यापारी,
तुझे जरूरत नहीं हमारी।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार





बुधवार, 8 मई 2019

कर्मयोगी




ऐ बालक !तू नजर गड़ाए ,
क्यों तकता धरती की ओर ।

परतों के भीतर क्या दिखता,
तुझको असीम सुखों का छोर।

हाथ फिराता ,हाथ डुलाता,
हैर-फेर क्या ढूंढ रहा तू ।

क्या बन के फिर से शिशु- सा
पय स्रोतों की आस लिए तू।

फटी बिवाई मुँह खोलकर,
दिखती कुछ निगलने को तत्पर।

खुश्क लबों पर जीभ फिराता,
छुद्र आस पर डटा हुआ तू।

तप्त धरा है, छाया नहीं जरा है
रत दिखता तू श्रम की ओर ।

चुनता जाता है जो तू अनवरत,
लोहा, कागज, तांबा, कासा।

स्वेद कणों की कालिमा से उन्हें,
नहलाता शुद्ध करता जाता।

तेरी फटी कचरे की झोली,
लगती सुनार की भरी तिजोरी।

तू योगी है या भोगी है
कर्म रेख की पकड़े डोर।
पल्लवी गोयल 
चित्र गूगल से साभार 

रविवार, 8 जुलाई 2018

ओ बदरा ! तू जल बरसा रे!


ओ कारे कजरारे बदरा
पिघल पिघल धरती पर आ  रे!
अमिय सुधा सम थाती अपनी
धरती का वरदान बना दे!

औंधे मुँह पड़ी नील गागर में
लहर लहर  जल लहरा दे ।
वाष्प समुन्दर  बन गगन की शोभा
लघु बूंद बन ,जीवन नहला दे।

पल्लव पर गिर उषा काल में
कोमल रूप ले पल्लवी कहला रे!
सीप के मुख में बैठे बैठे
सीपज बन किरन चमका दे।

तरुणी के केश तले बंध
ढलक ढलक सौंदर्य बरसा दे।
माँ के भीतर  शरण तू पा ले
छलका पय अमृत बन जा रे।

ओ कारे! मतवाला बन कर
उमड़ घुमड़ तू शोर मचा रे !
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार






















शनिवार, 9 जून 2018

दहलीज



हर  दहलीज है कहानी
अपने इतिहास की
कहीं मर्यादा के हास की
कहीं गर्वीले  अट्टहास की
कुछ शर्मीली चूड़ियों की
कुछ हठीली रणभेरियों की
कई दपदपाते झूमरों की
कई अधजले कमरों की

हर  दहलीज बाँधती है
अपने संस्कार से
अपने निवासियों को
खुद वहीं पड़ी
रह कर भी
घूमती है मर्यादा
 बन ,आप  तक

घर की दहलीज
के अंदर बहू ने
जब घूँघट में मर्यादा
कंगना में संस्कार,
पायल में नियम  टाँके
वह  उसकी इज्जत बन गई।
जो विपरीत दिशा को बढ़ी
घर की रुसवाई  रच गई ।

दहलीज है सीमा
की वह परिभाषा
जिसके एक तरफ़
सीमा की रेखा
और दूसरी तरफ है
सीमा का अंत ।

पल्लवी गोयल


















गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

मेरा साथी



 प्रश्न उठता एक 
संभावित उत्तर होते अनेक


 हर संभावना की पैठ है
अनंतकाल से  प्रश्न के पेट में ।

समय  उसे काल में  बाँध
ज़रूरत अनुसार खींच है लेता  ।

प्रश्न पूछता वह भुलावे में रहता
वह जन्मदाता है उसका।

उत्तर उसे हर बार बताता
प्रश्न तो बस  पूरक है उसका।

महाभारत थी काल का उत्तर
प्रश्न था द्रौपदी का प्रहार

उत्तर था माँ सीता का प्रयाण
प्रश्न था धोबी का पत्नी दुर्व्यवहार ।

रामायण है काव्यात्मक उत्तर,
प्रश्न था डाकू रत्नाकर ।

काल की पर्तों में छिपे हैैं उत्तर
प्रश्नों ने बस  साथी 
खोजा है। 



 पल्लवी गोयल 
(चित्र गूगल से साभार )





बुधवार, 20 मई 2015

जंगल का राजा



अभी - अभी  मेरी  हुई , जंगल में  उससे  भेंट, 

बड़ी  सी  पूंछ, पैने  पंजे  लिए  रहा था  लेट। 

लेटे  ही  उसने  पूछा, अरे  हुई  क्या  बात ? 
आज  बड़े  दिन  बाद हुई , तुमसे  मुलाकात । 

आओ  दो-दो   हाथ  हो  जाए , शतरंज की  बाज़ी, 
ज़रा  आवाज़  लगा  देना, कुछ  खाने को दे  जाए, सिंहनी  आजी।

मयूर  ज़रा  आकर  रांभा-सांभा  दिखला जाए, 
ज़िंदगी  भरपूर  मजे  की,  चलो  ज़रा  जीया  जाए।

शतरंज  बिछी, बाज़ी  लगी, फेंका  पासे  पर  पासा, 
अगला  पासा  उल्टा  पड़  गया,  पलट गया  सब  पासा। 

मैं था  नीचे,  वह  था  ऊपर, गुर्र - गुर्र - गुर्र  गुर्राता, 
बड़े  नुकीले,  तीखे,  चोखे , दाँत मुझे  दिखलाता। 

आँख  मींचकर, आँख  जो खोली, 

पलंग था  ऊपर,  मैं  था  नीचे, तकिया  मेरे  ऊपर, 
साँस  आ गई,  दम  आ  गया,  सपना  था  वह  केवल। 
                    



श्री राम वंदन


कौशल्या  नंदन  को  मेरा  वंदन, 
शत-शत  उन्हें प्रणाम। 
असुर, निशाचर  दुष्ट दलन  कर, 
ऋषि -  मुनियों को  दिया  विश्राम। 
कैकेयी  संग  दशरथ  की 
गोद में  अपूर्व  शोभायमान। 
सिंहासन  तज  फांकी  वन - रज
पितृ  वचन  को  दिया  सम्मान। 

भ्राता  को  सिंहासन  सौंपा, 
मातृप्रेम  का  दिया  प्रमाण। 
वानर,  रिछ , भालू  संग  रहकर, 
प्रकृति  प्रेम  का  दिया ज्ञान। 
संग  लंका,  लंकाधिपति  विनष्ट  कर, 
नष्ट  किया , विनाशी  का  अभिमान। 
त्याग दिया  प्रिय  भार्या  को भी ,
 राजकुल,  राजमर्यादा  के  नाम। 
आदर्शवादी, रघुकुलशिरोमणि, प्रजापालक, 
अयोध्यापति  श्रीराम  है  इनका नाम। 
ऐसे  श्री राम  को  मेरा  वंदन, 
शत-शत उन्हें प्रणाम। 

सोमवार, 11 मई 2015

अपनी नज़र


प्रशंसा  है व्यक्ति  की  सबसे बड़ी  कमज़ोरी, 
इसपर  विजय  पाना है  बहुत  ज़रूरी। 
नज़रें  खोजतीं हैं  एक  ऐसी  नज़र, 
जो  नज़रों में  ऊँचा  उठा  सके। 
पर  ये  खोजतीं  नज़रें, 
नज़र  नहीं  आतीं, 
नज़रों से  ज़रा सा  नीचे, 
आत्मा  के  सामने  नज़रें  झुकाए। 
हम  क्यों नहीं  आत्मा को  अपनी  नज़र  बनाते , 
खूबियों  और  कमियों  का  पलड़ा  उनसे  तुलवाते। 

रविवार, 10 मई 2015

बापू

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भारत  में जन्म  लिया 
विदेशों  में खत्म  की  पढ़ाई।
डिग्री तक  लेकर  पहुँचे  भारत में, 
अंग्रेजों की  लीला  रास  न  आई। 
विदेशी  उतार, देशी  पहन कर  
स्वदेशी  की  गुहार  लगवाई। 
डांडी  मार्च  की फेरी  लेकर, 
नमक  पहुंचाया  जन  तक  भाई। 
लंबी  लाठी  लिए  हाथ में, 
स्वतंत्रता  की  हुँकार  उठाई। 
गोल  चश्मा  टिका  नाक  पर, 
देश की  हर  समस्या  सुलझाई।