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गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

मेरा साथी



 प्रश्न उठता एक 
संभावित उत्तर होते अनेक


 हर संभावना की पैठ है
अनंतकाल से  प्रश्न के पेट में ।

समय  उसे काल में  बाँध
ज़रूरत अनुसार खींच है लेता  ।

प्रश्न पूछता वह भुलावे में रहता
वह जन्मदाता है उसका।

उत्तर उसे हर बार बताता
प्रश्न तो बस  पूरक है उसका।

महाभारत थी काल का उत्तर
प्रश्न था द्रौपदी का प्रहार

उत्तर था माँ सीता का प्रयाण
प्रश्न था धोबी का पत्नी दुर्व्यवहार ।

रामायण है काव्यात्मक उत्तर,
प्रश्न था डाकू रत्नाकर ।

काल की पर्तों में छिपे हैैं उत्तर
प्रश्नों ने बस  साथी 
खोजा है। 



 पल्लवी गोयल 
(चित्र गूगल से साभार )





रविवार, 11 फ़रवरी 2018

जीवन नैया

हे ईश्वर ! जीवन के स्वामी ,
तू तो  है  अंतर्यामी ।

सुख- दुःख हो या राग रंग,
 मन चले निर्वेद संग।

क्लेश ,कष्ट या हो उमंग, 
मन रंगा हो ,तेरे ही रंग। 

राग -द्वेष जीवन का हिस्सा, 
कभी न हो ये मेरा किस्सा ।

शत्रु ,मित्र या स्वदेश ,परदेश 
दिखे सबमें, तेरा ही वेश ।

लालच ,कपट ,स्वार्थ जब खींचे,
तेरी अंगुली थामूं , अखियाँ मींचे ।

नफ़रत को प्यार से जीतूँ ,
ह्रदय घट को अमृत वर दे। 

मन से तेरी आस न छूटे ,
जब तक ये सांस न टूटे ।

परम अर्थ में घुल जाए सब, 
स्वार्थ का अंतिम कतरा तक ।


धर्म ,पीठ ,वेदी ,नदी 
जो न पाऊँ या न जाऊँ।

तेरी  छवि अपने मानस में ,
अन्तिम क्षण  तक आंकित पाऊँ ।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 2 सितंबर 2017

लाइक




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सूचनाओं, संदेशों और ज्ञान के
समुद्र के अंदर छोड़ दिये गये हैं हम आज

लहरों के समान हर बार ये उठाते हैं ये ऊपर
पर परिणति किनारों पर दम तोड़ना ही है

नमकीन, खारे पानी का स्वाद अंदर की
उबकाइयों को बाहर खींच लाता है

हृदय में तो मीठा स्रोता बहता है पर
नमकीनियत चखने को लाचार हैं

जब भी  घुलती है मिठास मीठी लहर की
हृदय समानता की ओर वेग से बहता है। 


पल्लवी गोयल 
चित्र साभार गूगल 

रविवार, 25 दिसंबर 2016

इस पल को आराम करने दो

 ज़िंदगी के  कुछ पलों को 
आराम भी कर लेने दो 

काम बहुत हो लिया 
इन्हें आलस में पड़ने दो 

जो ये पल बैठे तो 
तुरंत इसे लिटा दो 

रजाई कम्बल ओढ़ा
बोरसी भी जला दो 

काम को समझाना 
देखो पास न जाना 

पल  आलस में डूबा है 
इसे न जगाना

आनंद को बताना 
पास में है जाना 

चुपके से सपने में 
पहुँच हिंडोला डुलाना 

हौले से अँगड़ाई ले 
जब आँखें ये खोलेगा 

ताजगी की खुमारी में 
खुद को जी लेगा 

आगे जो नया पल आएगा 
हाथ बाँधे, मुस्कुराता, बतलाएगा 

खड़ा हूँ मैं तैयार, आएँ 
कोई काम हो बतलाएँ 

पल्लवी गोयल
चित्र साभार गूगल  

रविवार, 13 नवंबर 2016

आगे पूर्वजों का इतिहास हमें रचना है


अभी क्या हम समाजवाद की
पगडंडी से नहीं गुजर रहे हैं
मोटर गाड़ी से उतरते  सेठ और ड्राइवर 
दोनों एक ही पंक्ति में खड़े हैं 
धूप  चढ़ी है सर पर तो क्या
 डांडी मार्च के समय वह नहीं चढ़ी थी
देश को स्वतन्त्र करने की राह में
पूर्वजों ने  सैकड़ों  कुर्बानियां नहीं दी थीं
नहीं कहती यह ठीक है
लगातार आती कुछ अप्रिय  ख़बरें
करुणा से चिल्लाते हो 
कि  एक नवजात शिशु मरा 
आवाज तो तुम्हें ये लगाना था 
नहीं दोस्त तुम्हें मरने नहीं देंगे 
हम एक अरब देशवासी हैं 
तुम्हारी रक्षा हम केवल
 एक रुपये से करेंगे
कालाबाजारी और आतंकवाद की सड़ान्ध में 
बजबजाते देश को बचाना इतना आसान भी नहीं 
बरसों बरस की बिछाई गंदगी है 
स्वच्छता अभियान की तैयारी 
सडकों से उठा कर घरों में उतर आई है 
गिरते को ऊपर उठाने के लिए 
खुद भी झुकना पड़ता है
एक तो हिम्मत से झुकने निकल पड़ा है 
निश्चय तुम्हारा है तुम्हें  क्या करना है  
क्या समझते हो की बदलाव है इतना आसान 
बदलाव की श्रृंखला में सूरज को भी 
अपनी किरणें लपेटना पड़ता है 
चाँद को भी चाँदनी समेटना पड़ता है 
तब कहीं आते है दिन और रात 
इस अंधकार में दूर दूर तक 
सोने की  चिड़िया के 
पंख भी नजर नहीं आते 
उसे देखने के लिए देश को
 एक बार पूरा पलटना होगा। 
हमारे पूर्वज हमें स्वतन्त्र  देश दे गए 
आगे पूर्वजों का इतिहास हमें रचना है। 

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

हक़ीक़त का नन्हा तारा

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आतिशबाजियों  के सैकड़ों
 हजारों लाखों जगमगाते 
 सितारों के बीच 

नज़र  आया कहीं दूर 
एक छोटा ,अँधेरे से लड़ता 
आकाश का सितारा 

क्या सचमुच उसका 
आकार था इतना छोटा 
जितना नजर आता था 

क्या सचमुच था वह 
इतना  मज़बूर कि  उसे नजर
में आना भी नामंजूर था 

क्या वह था इतना बेबस 
कि अँधेरे में अकेला छोड़ते
 ही  वह कहीं खो जाता 

क्या इन क्षणभंगुर लुभावने 
सितारों से सैकङो हजारों लाखों 
गुना  बेहतर नहीं था उसका अस्तित्व 

सच तो यही है हक़ीक़त  भी यूँ  ही 
पर्दानशीं  बन  हलकी झलक को ही 
पूरा सच समझने को मजबूर करती है 
चित्र साभार गूगल 

शनिवार, 10 सितंबर 2016

बोधिसत्व बनो तुम


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मैंने प्यार के जो बीज 
बोए  हैं तुम्हारे मनों में , 
उन्हें तुम नितप्रति 
सींचो ,सँवारो ,सहेजो। 

शाखाओं को बढ़ने दो 
ऊपर आकाश तक, 
धरती के अंतिम  सिरे तक 
उस क्षितिज तक।  

दया, क्षमा की
कोमल  अमरबेलों को, 
फलने फूलने दो 
इस अनंत वृक्ष पर। 

कटुता,घृणा की कुल्हाड़ी से बच 
फलने- फूलने का आशीर्वाद  है इसे,          
काटने पर चहुँदिश  फैलने का , 
रक्तबीज के  अंश का वरदान है इसे 

विश्व की आवश्यकता  है यह ,
तुम्हारा दृढ संबल है यह, 
तूफ़ानों  का सामना करना है तुम्हें , 
इसकी छाया तले बैठकर। 

द्वेष अंधकार समाप्त कर 
प्रेम प्रकाश विश्व में  फैला 
स्थिरता की प्रतिमूर्ति ,
बोधिसत्व बनो तुम। 


शिक्षक दिवस सप्ताह पर 
प्रिय छात्रों को आशीर्वाद सहित 
पल्लवी गोयल 
चित्र साभार गूगल 

गुरुवार, 31 मार्च 2016

जन्मदिन


  उम्र में  एक  और  वर्ष  बढ़ा
  मतलब  इसका
  जीवन  से  एक  वर्ष  घटा !

  सच क्या  यही है ? 
  हर एक  जन्मदिवस  का ? 
  खुशी  है  फिर  कैसी ?

  हम  हर  वर्ष   क्यों
  नाचते, गाते  और खाते  हैं ?

  क्यों  नहीं  कहीं  गहरे गम
  में डूब  जाते हैं 

  सोचा था  बहुत  पहले ,
  इस तर्क के  विषय में।

  पाया, अनुभवों के  पिटारे का
  एक मनका  हर  साल
  जीवन माला  में
  पिरोया  जाता  है 

  बढती  माला  को
  देख ही, हम  हर  वर्ष
  यह  खुशी दोहराते हैं। 

सोमवार, 18 जनवरी 2016

मैं किन्नर

पड़ा कदम जब  धरती पर पहला 
अन्याय मिला न  न्याय अभी तक 

 जन्म दिया था जिसने मुझको 
हुई  दुःख ,घृणा से भेंट वहीँ पर 

शुरू हुआ अलगाव का किस्सा 
माँ बाप  न  समाज का हिस्सा 

कब बीता बचपन,कब आई जवानी 
कब खाया पीया  ,कब जागा  सोया 

कब था हुलसा ,कब था बिलखा 
कब चोट लगी ,कब ताप चढ़ा 

कब मन मारा ,कब दर्द जगा 
नहीं पता था ,कुछ मुझको 


बताता कौन न माँ न बाप 
उपेक्षित सा पड़ा था आप 

ख़ुशी पराई , नाचा  मैं था 
की जग हँसाई , बजाता ताली था

तीखी मुस्कान लिए जग आँख नचाता 
उन इशारों पर मैं ठुमके लगाता 

क्या ठुमके मेरे मन के थे 
क्या हँसी  ने दिल पर दस्तक दी थी 

क्या नहीं थी ये एक रोटी की साज़िश 
दुखी मन पर सजी हंसी थी 

बुढ़ापे के द्वार खड़ा हूँ 
हो लाचार से लाचार  चला हूँ 

इंतज़ारआज भी है मुझको 
  केवल एक जोड़ी आँख का 

इंतज़ार आज भी है मुझको 
उन  आँखों के दो बूँद आँसुओं  का 





रविवार, 10 जनवरी 2016

साक्षरता

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जन जन में हो साक्षरता, 
ऐसा हो अभियान हमारा। 
नन्हें मुन्ने बच्चों को ,
देना होगा  ज़रा सहारा। 


बैसाखी लकड़ी नहीं है बच्चों ,
हक़ लेना ससम्मान तुम्हारा।  
भीख  दया नहीं  है ये ,
हक़ देना है कर्त्तव्य हमारा। 


हक़ जो  अपना छाँटोगे, 
वापस वही जग में बाँटोगे। 
बाँटा बांटी के इस खेल में ,
हो जाएगा रोशन जग सारा।


नई रोशनी और नई  चेतना, 
फैलाएगी जग में उजियारा।