पड़ा कदम जब धरती पर पहला
अन्याय मिला न न्याय अभी तक
जन्म दिया था जिसने मुझको
हुई दुःख ,घृणा से भेंट वहीँ पर
शुरू हुआ अलगाव का किस्सा
माँ बाप न समाज का हिस्सा
कब बीता बचपन,कब आई जवानी
कब खाया पीया ,कब जागा सोया
कब था हुलसा ,कब था बिलखा
कब चोट लगी ,कब ताप चढ़ा
कब मन मारा ,कब दर्द जगा
नहीं पता था ,कुछ मुझको
बताता कौन न माँ न बाप
उपेक्षित सा पड़ा था आप
ख़ुशी पराई , नाचा मैं था
की जग हँसाई , बजाता ताली था
तीखी मुस्कान लिए जग आँख नचाता
उन इशारों पर मैं ठुमके लगाता
क्या ठुमके मेरे मन के थे
क्या हँसी ने दिल पर दस्तक दी थी
क्या नहीं थी ये एक रोटी की साज़िश
दुखी मन पर सजी हंसी थी
बुढ़ापे के द्वार खड़ा हूँ
हो लाचार से लाचार चला हूँ
इंतज़ारआज भी है मुझको
केवल एक जोड़ी आँख का
इंतज़ार आज भी है मुझको
उन आँखों के दो बूँद आँसुओं का
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