7607529597598172 हिंदी पल्लवी

शनिवार, 14 दिसंबर 2019

कहे का कहा


जब कहा हुआ
कहा जाएगा
और फिर
कहा जाएगा
और तब तक
के लिए छोड़
दिया जाएगा
कि फिर
कहा जाए।

सुनने  वाला
कोई नहीं
सब कहने वाले
कहे का मंज़र
बवंडर बनकर
लहराएगा
आसमान की ओर
उड़ता निकल
जाएगा।

फिर से कहने
वाला  वही क्रिया 
दोहराएगा
जो कहने वाला
था उसने  कहा...
सुना नहीं
जो सुनने वाला था
वह भी कह ही
रहा था।

कहने वाले के
कहे का कहा
उनके लिए
कहा ही रह
जाएगा।

@पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

एक और एक ग्यारह


वैसे तो
एक और एक
मिल कर
दो बनता है ।
पर दो
की कोई
कहाँ सुनता है
आवाज बड़ी हो
तो दूर तक
जाती है ...
वरना छोटी तो
बस मक्खी
भिनभिनाती है ।

बेहतर है
 एक से एक
को मिलाओ
जोड़ा ग्यारह का
बनाओ ।
संख्या दो जुड़ेगी
 केवल एक मिलेगी
पर ताकत
 उसमें
दस और एक
की होगी ।

मर्जी तुम्हारी है
फायदा नुकसान
तुम्हारा है
किसे छोड़ो
किसे अपनाओ
फैसला भी
तुम्हारा है
 पर
एक को एक से
 गले लगाओ ।
एक को एक से
दूर
कदापि न भगाओ।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

प्रजातंत्र के रक्षक हो तुम

प्रजातंत्र है जिम्मेदारी 
जन जन इसका है अधिकारी 
अधिकार जो तुमको है पाना
कुछ कर्म भी करते जाना 
समुद्र की गहरी हलचल में
हंस बनो इक मोती चुनो
चुनना तुम्हारा कर्म -धर्म है
तुम प्रजातंत्र के रक्षक हो।
पल्लवी गोयल 

सोमवार, 12 अगस्त 2019

हे हिंद वासियों! कश्मीर वासियों!


हे हिंद वासियों !कश्मीरी बंधुओं!
 तुम भारत का सिरमौर हो
सत्तर वर्षों की कड़ी तपस्या
 के तुम जीवित धैर्य  हो।

 सीमा पर होने के
तुमने असंख्य वार सहे हैं
अदृश्य रेखा के इस पार सही
हमने भी सब दुख देखे हैं।

अब जो मिटी है वह अदृश्य अभी
उसको दिल से भी हटा देना
हो बिछड़े हुए तुम बरसों के
तुम भी बाहें फैला देना

 बोए हुए इस पराएपन ने
बहुत से त्रास रचे हैं
न पराए तुम हो, ना पराए हम
हाथ मिलाकर है चलना

 जो तलवार उठेगी तुमपर
ढाल होगा यह गात भी
 भ्राता, बंधु अरे सहोदर
 दुख पर मरहम हाथ भी।

हाथ से हाथ मिला कर चलना
लिखना है इतिहास अभी।
जंग हुई तो साथ रहेंगे
अमन हुआ तो सुख  भोगेंगे

ईद ,दिवाली ,स्वतंत्र, गणतंत्र
त्योहार साथ मनाएंगे
राष्ट्र मान तिरंगे तले
राष्ट्रगान सब गाएंगे

 संविधान है एक हमारा
 अधिकार हमारे समान है
भारत की हर अंतिम सीमा
पर हम सबका अधिकार है!!!

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

रविवार, 11 अगस्त 2019

हमराही


ज़िंदगी  हो ,साथी हों
साथ  जीने की
बेताबी हो
 चाहे रास्ता हो
ना मंज़िल
चलने का जज़्बा
रास्ता  दिखाए
उस रास्ते  को ही
 मंजिल समझ
हर पल को
जी लीजिए
रास्ते के इस
सफ़र में
हमराही की सुगंध
का लुत्फ़ लीजिए ।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 10 अगस्त 2019

ख्वाहिशों का क्षितिज


जिंदगी में ख्वाहिशों का कोई अंत नहीं।
एक पूरी करते दूसरी जन्म लेती वहीं।

पशोपेश में हूं कि चुनूँ वह कि यही।
होड़ में तो लगती सभी दूसरे पर चढ़ो

दिल की सुनो तो रास्ता पुराना वही।
दिमाग की हर इक बार एक राह नयी।

हृदय गहराई में उतरकर चुन लाता कोई।
मन आकाश के तारे चुन-चुन लाता कई।

अब तू ही बता क्या कोई रास्ता है ऐसा भी।
जो क्षितिज को छूकर आ सकता कभी।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

मंगलवार, 25 जून 2019

मैं बीज




कल जो मैं सोया

बंद कमरा देख बहुत रोया ।

आंखें ना खुलती थी

 गर्मी भी कुछ भिगोती थी ।

हवा की थी आस

 लगती थी बहुत प्यास ।

ना आवाज़ ना शोर

थी शांति चहुँ ओर ।

हाथ कहीं बंधे से थे

पैर भी खुलते न थे ।

थी बहुत निराशा

मिली ना कोई आशा।

 एक कतरा अमृत का

कुछ जीवन सा दे गया

आंखें तो खुली नहीं

पर खुश्क लबों को

  भिगो गया।

 लंबे समय की

खुश्की का  साथ

प्रतिदिन रहती बस

उस क्षण  की याद

 उसी बंदीगृह में  सुनी

 एक धीमी सी आवाज़

कुछ तो था उसमें  जो जगा

मुझमें नये जीवन का अहसास

फिर एक अविरल धारा बही

मैं झारोझार नहाया

हाथ कुछ खुलने लगे थे

पैर ज़मीं में धंसने लगे थे

एक स्पर्श से मैं  चौंक  गया

किसी  ने मेरे तन को छुआ

मैं मदमस्त  लहराने  लगा

मेरा मन गीत गाने लगा

गुनगुनाहट ने दी  शक्ति नयी

जोर लगाया तभी  आँखें खुली

चौंधियाई आँखें न

 सह पाईं यह वार

सामने  था अनोखा

  सुंदर सपनीला  संसार।

काश कि उस अँधेरे में

मैं यह समझ पाता

हर दुख के बाद

 सुख अवश्य आता।

सुख का प्रकाश

सबको है लुभाता।

पर सच यह है -

सुख- दुख का परचम

सिक्कों के दो

पहलू  सा लहराता।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार

गुरुवार, 30 मई 2019

महँगाई






दादी जी की  याद जो आई
वो चमकदार  आँखें  लहराई

बोल जुबां पर फिरते थे पर
सपने आँखों में  तिरते थे
भविष्य नहीं  ,वे यादें  थीं ,
जो बात बात पर निकलती थी ।

कभी  जलेबी  एक पैसे की
दोना  भर आ जाती थी ।
कभी सोलह आने में सोलह सेर
देशी घी की खुशबू घर गमकाती थी।

सोना चांदी का एक तोला
बस दस रुपए तुल जाता था ।
शानदार हवेली तीन मंजिली
बस तीस हजार में मिलती थी ।

एक पैसे का जीभ जरऊँआ
 पाचक खाते सब सुनती थी।
 अपनी भी कुछ बुरी नहीं थी
टॉफी पैसे में इक मिलती थी।

एक रूपये का रिक्शा तीन
 चौराहे पार कराता था ।
 ग्यारह  नंबर की बस पर जाओ
वह भी गुल्लक में जाता था।

 सरकारी स्कूल में जाकर
फीस माफ सी हो जाती थी।
 ग्यारह चवन्नियों के बदले
टीचर पूरे माह  पढ़ाती थी।

 रैपिडेक्स को पढ़- पढ़ कर
अंग्रेजी वॉकिंग टॉकिंग होती थी।
इंग्लिश मीडियम स्कूलों में बस
पुस्तक इंग्लिश की होती थी ।

बेटी जब पढ़ने को आई
इंग्लिश विद्या ही रास आई ।
कुछ रुपयों से ज्यादा रुपए
खर्च कर एडमिशन करा दिया ।

भांति-भांति पुस्तकों के संग
 कलर ,फेवीकोल भी आ गया ।
बस्ता ब्रांड का चाहिए था
 बोतल ,टिफिन और बॉक्स भी।

 रिक्शे का अब समय नहीं था
बस का हॉर्न बजता था ।
नये पुराने जमाने के बीच में
स्ट्रेंजर्स का खतरा बढ़ता था ।

कभी देखती फीस की पर्ची
कभी विद्यालय की इमारत नयी।
जो बतलाते थे आज की
महंगाई का ग्राफ सही ।

लक्ष्मी सरस्वती ने की थी
अब एक साठ-गांठ नई
एक बिना दूजी को पाना
थी बीते काल की बात हुई।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 25 मई 2019

मैं हूँ बड़ा रुपैया भैया


मैं हूँ बड़ा रुपैया भैया,
सबसे बड़ा रुपैया।
दौड़ के पीछे भागो मेरे,
हाथ कभी ना आऊँ तेरे।
लालच ,झूठ का मेरा संसार,
मृगतृष्णा का मैं जंजाल।
मैं आगे ,सब दुनिया पीछे ।
मैं नहीं ,सब रीते -रीते ।
महिमा से साथी बन जाते,
साथी भी दुश्मनी निभाते।
अजब गजब मेरा संसार,
चलो फिर मिलाते हाथ।
बढ़ाया हाथ ,तेरा मिला नहीं,
दो कदम बढ़ा, पर जुड़ा नहीं।
फिर कदम बढ़ा दो, हाथ सहित,
हाथ बढ़ा और पकड़ सही।
फिर कर एक कोशिश नयी,
कोशिश से हर बात बनी।
पास तेरे बस यही खड़ा हूं,
तेरे कर्मों से जुड़ा हुआ हूं।
कपट ,तृष्णा, छल ,धोखेबाजी,
कब्र खुदेगी यहीं तुम्हारी।
दया धर्म का जो तू व्यापारी,
तुझे जरूरत नहीं हमारी।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार





बुधवार, 8 मई 2019

कर्मयोगी




ऐ बालक !तू नजर गड़ाए ,
क्यों तकता धरती की ओर ।

परतों के भीतर क्या दिखता,
तुझको असीम सुखों का छोर।

हाथ फिराता ,हाथ डुलाता,
हैर-फेर क्या ढूंढ रहा तू ।

क्या बन के फिर से शिशु- सा
पय स्रोतों की आस लिए तू।

फटी बिवाई मुँह खोलकर,
दिखती कुछ निगलने को तत्पर।

खुश्क लबों पर जीभ फिराता,
छुद्र आस पर डटा हुआ तू।

तप्त धरा है, छाया नहीं जरा है
रत दिखता तू श्रम की ओर ।

चुनता जाता है जो तू अनवरत,
लोहा, कागज, तांबा, कासा।

स्वेद कणों की कालिमा से उन्हें,
नहलाता शुद्ध करता जाता।

तेरी फटी कचरे की झोली,
लगती सुनार की भरी तिजोरी।

तू योगी है या भोगी है
कर्म रेख की पकड़े डोर।
पल्लवी गोयल 
चित्र गूगल से साभार