7607529597598172 हिंदी पल्लवी

रविवार, 13 दिसंबर 2015

पहचान का मोल



अक्सर आपकी पहचान 
आपके कार्यों से नहीं
' रहनुमाईन्दों'  से होती है 

लोगों की जुबान में 
इनकी जुबान बसी होती है

 ' नज़रों '  को देखने के लिए
 इनके नज़रिए  की जरूरत होती है  

और आपकी पहचान 
इनकी सहूलियतों के लिए होती है 

जो इन सहूलियतों का दाम चुकाया आपने 
आप की 'पहचान' आपकी अपनी हो जाएगी 

वर्ना यूँ ही एड़ियाँ  घिसते - घिसते 
आपकी पहचान अपनी से पराई
 होती  ही चली जाएगी 
चित्र साभार गूगल(संवर्धित ) 

शनिवार, 7 नवंबर 2015

चिराग तले अँधेरा


धूम धूम जलती 
रोशनी के तले 
प्रकाशित थे 
कुछ बुझते चेहरे

जगमगाती उजली
 रोशनी  के बीच
बुझते बुझते से 
दो दीयों  के जोड़े

खुशियाँ  बिखराते,
 हाथ नचाते  ,
झूम कर गाते 
समूहों के बीच थे
 कुछ खोजते चेहरे 

विज्ञापित साड़ियों ,
महकती खुशियों , 
विदेशी टाइयों 
के बीच थी 
कुछ लुगड़ियां 
मुसी धोतियाँ 
और निक्करें 

छोटे सवार थे घोड़ी पर 
उनपर सवार सेहरा था 
छोटा कहार नंगे पाँव 
उस पर सवार बक्सा था 

सेहरा और चेहरा क्या 
घोड़ी के पाँव तले उजियारा था 
बक्से के ऊपर उजाला 
तले भविष्य अँधेरा , धुंधला था

कुछ सवाल पूछता सा 
लगता था ज़माने से 
न शिकायत थी चेहरे 
पर, न बल माथे पर

उम्र है दोनों की एक 
पर क्या गुनाह मेरा था  
                             पल्लवी गोयल 



  

विद्यालय


भौरों की गुंजार ही ,
बगिया का संगीत है 
रास्ते पर बिखरा मकरंद
यही मेरी धन संपत्ति  है   

रविवार, 1 नवंबर 2015

विचार





विचारों  की भी अजब कहानी होती है
विचारों  की दुनिया कुछ पहचानी
कुछ अनजानी सी होती है

कभी पहुंचते परी लोक तो
कभी पहुंचते प्रिय आँचल में
कभी चन्द्र की ऊँचाई पर
कभी पाताल  की गहराई तक

चंद्रयान यात्री से पहले
विचार वहाँ  पहुंचा था
विचार ही है  वह गोताखोर
जो आत्मसागर में डुबकी लगाता

विचारों  ने ही निराकार 
को साकार बनाया 
इसी  छाते ने सद्गुण  के पास
और दुर्गुण  से दूर रहना सिखाया 

विचार ही हैं जिन्होंने 
रोगी को यमराज तक 
डॉक्टर को आँत तक 
कवि को चाँद तक 

नर को शक्ति तक
सैनिक  को मैदान तक 
जेहादी को आत्मदाह तक  
पहुंचने  का रास्ता दिखाया 

विचार मंथन ही
दुर्गुणों की छाछ  दूर फेंक
इन्सान को इन्सान   बनाता   
विचार  ही दिन के उजाले 
रात के अँधेरे का अंतर बताता  

इसकी ऊर्जा क्या न
पहुंची छात्र तक
जिसकी तेजी ने पहुंचाया 
रॉकेट यान को आकाश तक

ये ही तो थे  
जिसने समय समय पर  
तेरा साथ दिया 
वे यही है 
जिन्होंने तुझे पथभ्रष्ट  किया  

तू अपने आप को क्यों 
दोष देता है 
ये गुरु हस्त तले 
और संगत में पलता  है 
                                      पल्लवी गोयल 
   











शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

माँ


माता  तो होती है देवी 
बच्चों के  लिए सबकुछ
 छोड़ देने वाली
बच्चों  को सबकुछ 
दे देने वाली 
उस देवी का दर्द 
पढ़ा  किसने ?
जब  सामने की थाली
सरकाई लाल को सामने
तो क्या उसका पेट
नहीं था ख़ाली ?
                      पल्लवी गोयल 


  

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

हौसले की उड़ान


हौसले की  उड़ान  तू  छोटी  मत करना, 
यदि दुनिया कहे, 'वह ' रास्ता है  मुश्किल, 
फैलाना  छोटे  पंखों को , पूरी  ताकत से, 
उड़ना उस ओर, जहाँ  बाहें फैलाए, 
तैयार खड़ी है  मंजिल।

राह  भरी  होगी, ऊँचे  पत्थरों से  तो  क्या? 
वहीं  नज़र  आएगी, एक  छोटी सी  गली। 
बरसों  बरस  से  पड़ी  सूनी,  बेज़ार सी, 
जिसे  रचा है  उसने  सिर्फ तेरे लिए।

सैकड़ों  तूफ़ानों  से  आकाश  भरा  हो  तो  क्या? 
वहीं  एक पेड़ पर छोटा सा  कोटर  भी  होगा ज़रूर, 
जिसके  जन्म  से ही वहाँ  कोई नहीं  झांका,  
रचा है  विधाता ने सिर्फ  तेरे  हौसले  के लिए।

विश्वास  टूटे  जो  तेरा कभी ,अपने   पंखों से,
तो  बताना  उन्हें, तू  अंश है  उस  परमात्मा  का 
जो  पूरी  सृष्टि  का  निर्माणक, पालनहार है, 
रचा है उसने  पूरी  कायनात  को तेरी सहायता के लिए। 
                                                पल्लवी गोयल

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

साकार क्षण





स्कूल  बस  में  बैठे  नौनिहाल,  

उमर  कोई  आठ से  दस साल। 

उन  नजरों का  पीछा करते, 
जब  मेरी  नज़ऱें  पहुँची वहाँ... 

जहाँ  था  नीला  आसमां, 
नवप्रभात  की  फूटती  किरणें, 
किरणों से  आरेखित  बादलों के झुंड, 

सभी  मिलकर  अठखेलियाँ  

करते नज़र आते थे। 
बालकों  का  कौतूहल  जगाते  थे। 

वह बस आगे  बढ़ती  जाती  थी, 
उनकी नज़रें  ऊपर वहीं  जमी जाती  थी।

कौतूहल तो  मेरी  आँखों में  भी  था। 
उन  बालकों  की  आँखों  से  फूटती 
नवप्रभात की  किरणें  देखने  का, 
उनके  दिलों में उन  बादलों के  बुलबुले 
मुस्कान के  आरेखण में देखने  का, 
उनकी  इंगित  अंगुलियां, 
चमकते  चेहरे, 
खिलती मुस्कराहटें, 
दूर  आसमान  में  आकार  बना  रहे थे। 
और  मैं  इन  आकारों  को  देखकर, 
वह  क्षण  साकार कर रही थी। 
                                          पल्लवी गोयल 

सोमवार, 31 अगस्त 2015

आदर


आर्यावर्त  की  आर्य  संस्कृति
विश्व में  पाती  सर्वोच्च  स्थान
ऋषि -  मुनि , रिश्ते  - नातों को
सदैव  देती  यथोचित  सम्मान
इतिहास के  स्वर्णिम अक्षरों को
उलट - पलट  कर जब  हम  झांकें
हुमायूं  को  राखी  पर  झुकते
धाय  माँ को  सम्मान देते  पाते
पिता  के एक  वचन  की  खातिर
पुत्र  व्यर्थ  करता  चौदह वर्ष
यहीं  शिवाजी  मातृ  इच्छा पर
भटकते  दिखते  वनों  वनों   पर
राजा  प्रजा के  आदरवश
प्रिय  पत्नी  त्याग  का  भार  उठाता
वहीं  पत्नी का अस्तित्व
फटी  भूमि  में  सहज  समाता
भक्ति  भी बिन आदर के
हृदय में  पाती कहाँ स्थान
राम कृष्ण  हो या मात पिता
जन-जन  का  हृदय  है  इसका  धाम 

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

कर्म पथ का राही


कर्म  पथ  का राही हूँ मैं
डगर डगर  हूँ  नापता
मंदिर, मस्जिद,  चर्च  गुरूद्वारा
न, कर्म  स्थल  को  हूँ जानता
कांटे  बिछे  हों  राह  में  तो
हँस  के  चल  पड़ता  हूँ मैं
फूलों की  राह  चुनकर
कब  होता है  कार्य  सुफल
एक  राह  मंदिर की  है
दूजी कर्म  स्थान  की
चुुनूँगा  मैं  कौन  सी
इसमें  नहीं ,  जरा  संदेह
 कर्म  सम्पन्न  होते  ही
ईश्वर  मिल  जाते  वहीं
अलग  से  क्यों  राह  चुनना
जब  लक्ष्य है  एक  ही।
पल्लवी  गोयल

शनिवार, 6 जून 2015

श्रमजल

मेरी  महत्वाकांक्षा का  जन्म हुआ था 
वहाँ, उस  चोटी पर। 
आँख बंद करते  ही  पहुँचती  थी 
जहाँ, उसके सिरे पर। 
धरती  थी  बहुत  नीचे, 
आसमां  था  बहुत  पास। 
जगी  हुई थी,  सैकड़ों  प्यास, 
प्यास बुझाने के  थे  साधन  अनेक, 
जुटा  कर  हिम्मत , बढ़ाना  था  हाथ। 
उठाना  था  एक  ऐसा  गिलास, 
जिसमें  हो  पसीने की  मीठी सुवास। 
आकांक्षा  का घोल  घुला  हो  शर्करा  सा, 
श्रमजल में,  स्वेदकण में।