शनिवार, 24 अक्टूबर 2015
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015
हौसले की उड़ान
हौसले की उड़ान तू छोटी मत करना,
यदि दुनिया कहे, 'वह ' रास्ता है मुश्किल,
फैलाना छोटे पंखों को , पूरी ताकत से,
उड़ना उस ओर, जहाँ बाहें फैलाए,
तैयार खड़ी है मंजिल।
राह भरी होगी, ऊँचे पत्थरों से तो क्या?
वहीं नज़र आएगी, एक छोटी सी गली।
बरसों बरस से पड़ी सूनी, बेज़ार सी,
जिसे रचा है उसने सिर्फ तेरे लिए।
सैकड़ों तूफ़ानों से आकाश भरा हो तो क्या?
वहीं एक पेड़ पर छोटा सा कोटर भी होगा ज़रूर,
जिसके जन्म से ही वहाँ कोई नहीं झांका,
रचा है विधाता ने सिर्फ तेरे हौसले के लिए।
विश्वास टूटे जो तेरा कभी ,अपने पंखों से,
तो बताना उन्हें, तू अंश है उस परमात्मा का
जो पूरी सृष्टि का निर्माणक, पालनहार है,
रचा है उसने पूरी कायनात को तेरी सहायता के लिए।
शनिवार, 3 अक्टूबर 2015
साकार क्षण
स्कूल बस में बैठे नौनिहाल,
उमर कोई आठ से दस साल।
उन नजरों का पीछा करते,
जब मेरी नज़ऱें पहुँची वहाँ...
जब मेरी नज़ऱें पहुँची वहाँ...
जहाँ था नीला आसमां,
नवप्रभात की फूटती किरणें,
किरणों से आरेखित बादलों के झुंड,
नवप्रभात की फूटती किरणें,
किरणों से आरेखित बादलों के झुंड,
सभी मिलकर अठखेलियाँ
करते नज़र आते थे।
बालकों का कौतूहल जगाते थे।
बालकों का कौतूहल जगाते थे।
वह बस आगे बढ़ती जाती थी,
उनकी नज़रें ऊपर वहीं जमी जाती थी।
कौतूहल तो मेरी आँखों में भी था।
उन बालकों की आँखों से फूटती
नवप्रभात की किरणें देखने का,
उनके दिलों में उन बादलों के बुलबुले
मुस्कान के आरेखण में देखने का,
उनकी इंगित अंगुलियां,
चमकते चेहरे,
खिलती मुस्कराहटें,
दूर आसमान में आकार बना रहे थे।
और मैं इन आकारों को देखकर,
वह क्षण साकार कर रही थी।
पल्लवी गोयल
सोमवार, 31 अगस्त 2015
आदर
आर्यावर्त की आर्य संस्कृति
विश्व में पाती सर्वोच्च स्थान
ऋषि - मुनि , रिश्ते - नातों को
सदैव देती यथोचित सम्मान
इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों को
उलट - पलट कर जब हम झांकें
हुमायूं को राखी पर झुकते
धाय माँ को सम्मान देते पाते
पिता के एक वचन की खातिर
पुत्र व्यर्थ करता चौदह वर्ष
यहीं शिवाजी मातृ इच्छा पर
भटकते दिखते वनों वनों पर
राजा प्रजा के आदरवश
प्रिय पत्नी त्याग का भार उठाता
वहीं पत्नी का अस्तित्व
फटी भूमि में सहज समाता
भक्ति भी बिन आदर के
हृदय में पाती कहाँ स्थान
राम कृष्ण हो या मात पिता
जन-जन का हृदय है इसका धाम
शुक्रवार, 21 अगस्त 2015
कर्म पथ का राही
कर्म पथ का राही हूँ मैं
डगर डगर हूँ नापता
मंदिर, मस्जिद, चर्च गुरूद्वारा
न, कर्म स्थल को हूँ जानता
कांटे बिछे हों राह में तो
हँस के चल पड़ता हूँ मैं
फूलों की राह चुनकर
कब होता है कार्य सुफल
एक राह मंदिर की है
दूजी कर्म स्थान की
चुुनूँगा मैं कौन सी
इसमें नहीं , जरा संदेह
कर्म सम्पन्न होते ही
ईश्वर मिल जाते वहीं
अलग से क्यों राह चुनना
जब लक्ष्य है एक ही।
पल्लवी गोयल
शनिवार, 6 जून 2015
श्रमजल
मेरी महत्वाकांक्षा का जन्म हुआ था
वहाँ, उस चोटी पर।
आँख बंद करते ही पहुँचती थी
जहाँ, उसके सिरे पर।
धरती थी बहुत नीचे,
आसमां था बहुत पास।
जगी हुई थी, सैकड़ों प्यास,
प्यास बुझाने के थे साधन अनेक,
जुटा कर हिम्मत , बढ़ाना था हाथ।
उठाना था एक ऐसा गिलास,
जिसमें हो पसीने की मीठी सुवास।
आकांक्षा का घोल घुला हो शर्करा सा,
श्रमजल में, स्वेदकण में।
रविवार, 24 मई 2015
ऐ ज़िंदगी मुझे तुमसे प्यार
ज़िंदगी , ऐ ज़िंदगी
मुझे तुमसे प्यार,
मुझे तुमसे प्यार।
तुम एक रास्ता हो,
जो चलता है अनवरत, लगातार।
कभी जंगल, कभी बगीचा,
कभी चौरस्ता, कभी मिलता है हाट।
हर एक रास्ते से है,
ऐ ज़िंदगी मुझको प्यार।
सुख भी है, दु:ख भी है,
यहां गम अनेक, खुशियाँ हज़ार।
तेरे हर भाव से, मुझको प्यार।
ऐ ज़िंदगी मुझे तुमसे प्यार।
चलना भी है, रुकना भी है,
मुड़ना भी है, झुकना भी है।
तेरे हर एक कदम पर मेरा ऐतबार।
ऐ ज़िंदगी , मुझे तुमसे प्यार।
यहां दोस्त भी, दुश्मन यहां,
अजनबी यहीं, यहीं जांनिसार,
इस राह के हर राही से प्यार,
ऐ ज़िंदगी, मुझे तुमसे प्यार।
चाहे मंज़िल हो या रास्ता,
या मील का पत्थर कोई,
चलता हर कदम लगे बेमिसाल,
ऐ ज़िंदगी मुझे तुमसे प्यार।
पहाड़ के ऊँचे दरख्त से प्यार,
खाड़ी की उड़ती चिड़िया से प्यार।
ऐ ज़िंदगी मुझे तुमसे प्यार,
ऐ ज़िंदगी मुझे तुझसे प्यार।
- पल्लवी गोयल
बुधवार, 20 मई 2015
जंगल का राजा
अभी - अभी मेरी हुई , जंगल में उससे भेंट,
बड़ी सी पूंछ, पैने पंजे लिए रहा था लेट।
लेटे ही उसने पूछा, अरे हुई क्या बात ?
आज बड़े दिन बाद हुई , तुमसे मुलाकात ।
आओ दो-दो हाथ हो जाए , शतरंज की बाज़ी,
ज़रा आवाज़ लगा देना, कुछ खाने को दे जाए, सिंहनी आजी।
मयूर ज़रा आकर रांभा-सांभा दिखला जाए,
ज़िंदगी भरपूर मजे की, चलो ज़रा जीया जाए।
शतरंज बिछी, बाज़ी लगी, फेंका पासे पर पासा,
अगला पासा उल्टा पड़ गया, पलट गया सब पासा।
मैं था नीचे, वह था ऊपर, गुर्र - गुर्र - गुर्र गुर्राता,
बड़े नुकीले, तीखे, चोखे , दाँत मुझे दिखलाता।
आँख मींचकर, आँख जो खोली,
पलंग था ऊपर, मैं था नीचे, तकिया मेरे ऊपर,
साँस आ गई, दम आ गया, सपना था वह केवल।
श्री राम वंदन
कौशल्या नंदन को मेरा वंदन,
शत-शत उन्हें प्रणाम।
असुर, निशाचर दुष्ट दलन कर,
ऋषि - मुनियों को दिया विश्राम।
कैकेयी संग दशरथ की
गोद में अपूर्व शोभायमान।
सिंहासन तज फांकी वन - रज
पितृ वचन को दिया सम्मान।
भ्राता को सिंहासन सौंपा,
मातृप्रेम का दिया प्रमाण।
वानर, रिछ , भालू संग रहकर,
प्रकृति प्रेम का दिया ज्ञान।
संग लंका, लंकाधिपति विनष्ट कर,
नष्ट किया , विनाशी का अभिमान।
त्याग दिया प्रिय भार्या को भी ,
राजकुल, राजमर्यादा के नाम।
आदर्शवादी, रघुकुलशिरोमणि, प्रजापालक,
अयोध्यापति श्रीराम है इनका नाम।
ऐसे श्री राम को मेरा वंदन,
शत-शत उन्हें प्रणाम।
सोमवार, 11 मई 2015
अपनी नज़र
प्रशंसा है व्यक्ति की सबसे बड़ी कमज़ोरी,
इसपर विजय पाना है बहुत ज़रूरी।
नज़रें खोजतीं हैं एक ऐसी नज़र,
जो नज़रों में ऊँचा उठा सके।
पर ये खोजतीं नज़रें,
नज़र नहीं आतीं,
नज़रों से ज़रा सा नीचे,
आत्मा के सामने नज़रें झुकाए।
हम क्यों नहीं आत्मा को अपनी नज़र बनाते ,
खूबियों और कमियों का पलड़ा उनसे तुलवाते।
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