रविवार, 11 अगस्त 2019
शनिवार, 10 अगस्त 2019
ख्वाहिशों का क्षितिज
जिंदगी में ख्वाहिशों का कोई अंत नहीं।
एक पूरी करते दूसरी जन्म लेती वहीं।
पशोपेश में हूं कि चुनूँ वह कि यही।
होड़ में तो लगती सभी दूसरे पर चढ़ो
दिल की सुनो तो रास्ता पुराना वही।
दिमाग की हर इक बार एक राह नयी।
हृदय गहराई में उतरकर चुन लाता कोई।
मन आकाश के तारे चुन-चुन लाता कई।
अब तू ही बता क्या कोई रास्ता है ऐसा भी।
जो क्षितिज को छूकर आ सकता कभी।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार
मंगलवार, 25 जून 2019
मैं बीज
कल जो मैं सोया
बंद कमरा देख बहुत रोया ।
आंखें ना खुलती थी
गर्मी भी कुछ भिगोती थी ।
हवा की थी आस
लगती थी बहुत प्यास ।
ना आवाज़ ना शोर
थी शांति चहुँ ओर ।
हाथ कहीं बंधे से थे
पैर भी खुलते न थे ।
थी बहुत निराशा
मिली ना कोई आशा।
एक कतरा अमृत का
कुछ जीवन सा दे गया
आंखें तो खुली नहीं
पर खुश्क लबों को
भिगो गया।
लंबे समय की
खुश्की का साथ
प्रतिदिन रहती बस
उस क्षण की याद
उसी बंदीगृह में सुनी
एक धीमी सी आवाज़
कुछ तो था उसमें जो जगा
मुझमें नये जीवन का अहसास
फिर एक अविरल धारा बही
मैं झारोझार नहाया
हाथ कुछ खुलने लगे थे
पैर ज़मीं में धंसने लगे थे
एक स्पर्श से मैं चौंक गया
किसी ने मेरे तन को छुआ
मैं मदमस्त लहराने लगा
मेरा मन गीत गाने लगा
गुनगुनाहट ने दी शक्ति नयी
जोर लगाया तभी आँखें खुली
चौंधियाई आँखें न
सह पाईं यह वार
सामने था अनोखा
सुंदर सपनीला संसार।
काश कि उस अँधेरे में
मैं यह समझ पाता
हर दुख के बाद
सुख अवश्य आता।
सुख का प्रकाश
सबको है लुभाता।
पर सच यह है -
सुख- दुख का परचम
सिक्कों के दो
पहलू सा लहराता।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार
गुरुवार, 30 मई 2019
महँगाई
दादी जी की याद जो आई
वो चमकदार आँखें लहराई
बोल जुबां पर फिरते थे पर
सपने आँखों में तिरते थे
भविष्य नहीं ,वे यादें थीं ,
जो बात बात पर निकलती थी ।
कभी जलेबी एक पैसे की
दोना भर आ जाती थी ।
कभी सोलह आने में सोलह सेर
देशी घी की खुशबू घर गमकाती थी।
सोना चांदी का एक तोला
बस दस रुपए तुल जाता था ।
शानदार हवेली तीन मंजिली
बस तीस हजार में मिलती थी ।
एक पैसे का जीभ जरऊँआ
पाचक खाते सब सुनती थी।
अपनी भी कुछ बुरी नहीं थी
टॉफी पैसे में इक मिलती थी।
एक रूपये का रिक्शा तीन
चौराहे पार कराता था ।
ग्यारह नंबर की बस पर जाओ
वह भी गुल्लक में जाता था।
सरकारी स्कूल में जाकर
फीस माफ सी हो जाती थी।
ग्यारह चवन्नियों के बदले
टीचर पूरे माह पढ़ाती थी।
रैपिडेक्स को पढ़- पढ़ कर
अंग्रेजी वॉकिंग टॉकिंग होती थी।
इंग्लिश मीडियम स्कूलों में बस
पुस्तक इंग्लिश की होती थी ।
बेटी जब पढ़ने को आई
इंग्लिश विद्या ही रास आई ।
कुछ रुपयों से ज्यादा रुपए
खर्च कर एडमिशन करा दिया ।
भांति-भांति पुस्तकों के संग
कलर ,फेवीकोल भी आ गया ।
बस्ता ब्रांड का चाहिए था
बोतल ,टिफिन और बॉक्स भी।
रिक्शे का अब समय नहीं था
बस का हॉर्न बजता था ।
नये पुराने जमाने के बीच में
स्ट्रेंजर्स का खतरा बढ़ता था ।
कभी देखती फीस की पर्ची
कभी विद्यालय की इमारत नयी।
जो बतलाते थे आज की
महंगाई का ग्राफ सही ।
लक्ष्मी सरस्वती ने की थी
अब एक साठ-गांठ नई
एक बिना दूजी को पाना
थी बीते काल की बात हुई।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार
शनिवार, 25 मई 2019
मैं हूँ बड़ा रुपैया भैया
सबसे बड़ा रुपैया।
दौड़ के पीछे भागो मेरे,
हाथ कभी ना आऊँ तेरे।
लालच ,झूठ का मेरा संसार,
मृगतृष्णा का मैं जंजाल।
मैं आगे ,सब दुनिया पीछे ।
मैं नहीं ,सब रीते -रीते ।
महिमा से साथी बन जाते,
साथी भी दुश्मनी निभाते।
अजब गजब मेरा संसार,
चलो फिर मिलाते हाथ।
बढ़ाया हाथ ,तेरा मिला नहीं,
दो कदम बढ़ा, पर जुड़ा नहीं।
फिर कदम बढ़ा दो, हाथ सहित,
हाथ बढ़ा और पकड़ सही।
फिर कर एक कोशिश नयी,
कोशिश से हर बात बनी।
पास तेरे बस यही खड़ा हूं,
तेरे कर्मों से जुड़ा हुआ हूं।
कपट ,तृष्णा, छल ,धोखेबाजी,
कब्र खुदेगी यहीं तुम्हारी।
दया धर्म का जो तू व्यापारी,
तुझे जरूरत नहीं हमारी।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार
बुधवार, 8 मई 2019
कर्मयोगी
ऐ बालक !तू नजर गड़ाए ,
क्यों तकता धरती की ओर ।
परतों के भीतर क्या दिखता,
तुझको असीम सुखों का छोर।
हाथ फिराता ,हाथ डुलाता,
हैर-फेर क्या ढूंढ रहा तू ।
क्या बन के फिर से शिशु- सा
पय स्रोतों की आस लिए तू।
फटी बिवाई मुँह खोलकर,
दिखती कुछ निगलने को तत्पर।
खुश्क लबों पर जीभ फिराता,
छुद्र आस पर डटा हुआ तू।
तप्त धरा है, छाया नहीं जरा है
रत दिखता तू श्रम की ओर ।
चुनता जाता है जो तू अनवरत,
लोहा, कागज, तांबा, कासा।
स्वेद कणों की कालिमा से उन्हें,
नहलाता शुद्ध करता जाता।
तेरी फटी कचरे की झोली,
लगती सुनार की भरी तिजोरी।
तू योगी है या भोगी है
कर्म रेख की पकड़े डोर।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार
रविवार, 8 जुलाई 2018
ओ बदरा ! तू जल बरसा रे!
ओ कारे कजरारे बदरा
पिघल पिघल धरती पर आ रे!
अमिय सुधा सम थाती अपनी
धरती का वरदान बना दे!
औंधे मुँह पड़ी नील गागर में
लहर लहर जल लहरा दे ।
वाष्प समुन्दर बन गगन की शोभा
लघु बूंद बन ,जीवन नहला दे।
पल्लव पर गिर उषा काल में
कोमल रूप ले पल्लवी कहला रे!
सीप के मुख में बैठे बैठे
सीपज बन किरन चमका दे।
तरुणी के केश तले बंध
ढलक ढलक सौंदर्य बरसा दे।
माँ के भीतर शरण तू पा ले
छलका पय अमृत बन जा रे।
ओ कारे! मतवाला बन कर
उमड़ घुमड़ तू शोर मचा रे !
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार
शनिवार, 9 जून 2018
दहलीज
हर दहलीज है कहानी
अपने इतिहास की
कहीं मर्यादा के हास की
कहीं गर्वीले अट्टहास की
कुछ शर्मीली चूड़ियों की
कुछ हठीली रणभेरियों की
कई दपदपाते झूमरों की
कई अधजले कमरों की
हर दहलीज बाँधती है
अपने संस्कार से
अपने निवासियों को
खुद वहीं पड़ी
रह कर भी
घूमती है मर्यादा
बन ,आप तक
घर की दहलीज
के अंदर बहू ने
जब घूँघट में मर्यादा
कंगना में संस्कार,
पायल में नियम टाँके
वह उसकी इज्जत बन गई।
जो विपरीत दिशा को बढ़ी
घर की रुसवाई रच गई ।
दहलीज है सीमा
की वह परिभाषा
जिसके एक तरफ़
सीमा की रेखा
और दूसरी तरफ है
सीमा का अंत ।
पल्लवी गोयल
शुक्रवार, 23 मार्च 2018
एहसासों का कारवाँ
दिल ने पुकारा
उनको
पुकारता ही
चला गया।
मुख मौन था,
आँखें झुकी हुई।
न देख कर भी
देखता ही रह गया।
जांचा !!परखा!!
जब आँखें और
मुख मौन है ,
आवाज़
कौन लगाता है?
एहसास हुआ !!
उनके आने की
आहट से
रोम -रोम चिल्लाता है!!
२
मसूरी की वादियों में....
सबसे ऊँची पहाड़ी पर खड़ी,
सबसे ऊँची पहाड़ी पर खड़ी,
मैं देख रही थी, उस घाटी को।
आकर्षण घाटी नहीं ,वहाँ उड़ता
एक सफ़ेद पक्षी था।
जो अपने दोनों पंखों को फैलाए
शानदार उड़ान के साथ,
कभी ऊपर ऊंचाई को ,
और कभी गहराई को छूता ।
आकर्षण की तारतम्य स्थिति में,
आँखों के उठते गिरते क्रम में ।
अचानक ही एक एहसास हुआ कि...
मेरा पूरा अस्तित्व हल्का हो गया।
बगल में जा 'उसका 'जोड़ा बन गया !!
३
तेरी गोद में सर रख,
जो आँखें झपकाती हूँ।
अपने चारों तरफ शून्य ,
खुद को तुझमें पाती हूँ माँ ।
४
ऐ मेरे परमात्मा !
नहीं जानती, तू
यहाँ है या वहाँ।
बड़ा सरल, सुगम है तू ,
सहज ही तुझे पाती हूँ
सहज ही तुझे पाती हूँ
मैं चाहती तुझे जहाँ।
५
वह क्षण
जो दिमाग को छूता हुआ
दिल में भी मुस्कुराए।
वह एहसास बन,
कण कण में गीत गाए।
६
जो कलम उठाई ,अपने
एहसासों को पढ़ने के लिए,
बंद आँखों के सामने से
पूरा कारवाँ गुज़र गया।
५
वह क्षण
जो दिमाग को छूता हुआ
दिल में भी मुस्कुराए।
वह एहसास बन,
कण कण में गीत गाए।
६
जो कलम उठाई ,अपने
एहसासों को पढ़ने के लिए,
बंद आँखों के सामने से
पूरा कारवाँ गुज़र गया।
पल्लवी गोयल
रविवार, 18 मार्च 2018
उम्मीद ; सपना ; तकदीर
सूरज के तन से विलग हुआ एक कतरा था ,
सृजन की उम्मीद।
वहीं धुएँ सा पहली भाप का उड़ जाना था ,
रसधारा की उम्मीद।
नदी किनारे वह लिजलिजा,रेंगता पहला जीव था,
जीवन की उम्मीद ।
नम सी धरती से उगता वह पहला कोंपल था,
हरियाली की उम्मीद ।
सूरज की किरणों का धरती पर पहुंचना ही है,
क्षुधा- पूर्ति की उम्मीद।
बूढ़े बाबा की गठरी में दबा वह सोने का हार है,
बेटी के ब्याह की उम्मीद।
कचरे के पहाड़ तले एक एक तिनका चुनता बालक है,
बदलती तस्वीर की उम्मीद ।
स्लेट पर आड़ी तिरछी रेखा खींचते नन्हे- मुन्ने से है,
माँ-बाप को उम्मीद।
उम्मीदों पर टिका यह संसार बुनता नयी दुनिया,
अपने सपनों की।
उन सपनों को मशक्कत से जीकर इंसान बना लेता है,
अपनी तकदीर ।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार
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