कल जो मैं सोया
बंद कमरा देख बहुत रोया ।
आंखें ना खुलती थी
गर्मी भी कुछ भिगोती थी ।
हवा की थी आस
लगती थी बहुत प्यास ।
ना आवाज़ ना शोर
थी शांति चहुँ ओर ।
हाथ कहीं बंधे से थे
पैर भी खुलते न थे ।
थी बहुत निराशा
मिली ना कोई आशा।
एक कतरा अमृत का
कुछ जीवन सा दे गया
आंखें तो खुली नहीं
पर खुश्क लबों को
भिगो गया।
लंबे समय की
खुश्की का साथ
प्रतिदिन रहती बस
उस क्षण की याद
उसी बंदीगृह में सुनी
एक धीमी सी आवाज़
कुछ तो था उसमें जो जगा
मुझमें नये जीवन का अहसास
फिर एक अविरल धारा बही
मैं झारोझार नहाया
हाथ कुछ खुलने लगे थे
पैर ज़मीं में धंसने लगे थे
एक स्पर्श से मैं चौंक गया
किसी ने मेरे तन को छुआ
मैं मदमस्त लहराने लगा
मेरा मन गीत गाने लगा
गुनगुनाहट ने दी शक्ति नयी
जोर लगाया तभी आँखें खुली
चौंधियाई आँखें न
सह पाईं यह वार
सामने था अनोखा
सुंदर सपनीला संसार।
काश कि उस अँधेरे में
मैं यह समझ पाता
हर दुख के बाद
सुख अवश्य आता।
सुख का प्रकाश
सबको है लुभाता।
पर सच यह है -
सुख- दुख का परचम
सिक्कों के दो
पहलू सा लहराता।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार